Tuesday, February 16, 2021

Horn OK Please

 जैसे ही नींद आती है रोडवेज़ की बस आ जाती है


तालाबंदी के समय सड़क पर पसरी शांति याद रह गई है। अब जब उसी सड़क पर ज़िंदगी लौट आई है वो शांति के साथ जुड़ी उदासी चली गई है। ख़ाली सड़क अच्छी लगती है लेकिन सड़क का हमेशा ख़ाली रहना अच्छा नहीं लगता है। जीवन के बग़ैर किसी चीज़ की कल्पना भरी हुई जगह को ख़ाली कर देती है। 


इन दिनों उसी सड़क से उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों में जाने वाली रोडवेज़ की बसें गुज़रने लगी हैं। उनके गुज़रने के साथ हॉर्न से होने वाली ध्वनि प्रदूषण भी कानों तक आने लगा है। बहुत दिनों तक इन आवाज़ों से चिढ़ना रहा। हॉर्न के शोर से तनाव हो जाता है। कुछ  समय के अंतराल पर एक बस आ रही होती है और ज़ोर से हॉर्न बजाती हुई गुज़र जाती है। उसका जाना अभी पूरा नहीं होता है कि दूसरी आने लगती है। लेकिन अब तनाव के इन क्षणों के बीच इन ध्वनियों को लेकर अलग अहसास होने लगा है। 


खिड़की से हर गुज़रती बस को देखना, रेल की खिड़की से गुज़रते गांव और शहर को देखने जैसा लग रहा है। उन बसों को देखते ही कस्बों के नाम याद आने लगते हैं। मन में गिनने लगता हूं। ये बस इटावा जा रही है। इसे कासगंज जाना है। इसे प्रतापगढ़ जाना होगा। ये शायद झांसी जा रही होगी। देखने में पुरानी लगने वाली ये बसें अपने गुज़रने के अंदाज़ से कभी थकी सी नहीं लगती हैं। उनके पीछे आने वाली प्राइवेट बसें भी उनके जैसी हो चुकी हैं। लेकिन सरकारी और प्राइवेट बसों की चाल में अंतर नज़र आता है। रोडवेज़ की बसें सरकार की तरह चलती हैं। उन्हें जताना नहीं पड़ता है। जबकि प्राइवेट बसें दावा करती चलती हैं कि नई हैं, बड़ी हैं तो यह सड़क भी उनके बाप की है। रोडवेज़ की बसों का चालक ज़िम्मेदार है। किसी के लिए दूर से रुकता है। उसकी गति संयमित नज़र आती है। विशालकाय दो मंज़िला बसें देखने से ही लगता है कि उलट जाएंगी। 


मुझे तो ऊपर से ये बसें खिलौने की तरह दिखती हैं। सबकी छतें सपाट हैं। आदमी लदा है न सामान। किसी ने गर्दन भी नहीं निकाली है। लगता है बसों में बैठने वाले लोग पूरी तरह से अनुशासित हो चुके हैं। कोई हीरो जैसा कंडक्टर नहीं है जो छाती की बटन खो लकर गेट पर लटका हो। सब कुछ बंद है। बाहर केवल बस की घड़घड़ाहट और प्रेशर हार्न। कभी-कभार उन बसों के साथ गाना बजता सुनाई दे रहा है। जैसे अभी-अभी लिखते हुए एक गाना सुनाई दिया। स्वर्ग फिल्म का गाना है। ऐ मेरे दोस्त लौट के आजा...बिन तेरी ज़िंदगी अधूरी है। लेकिन बस इतनी तेज़ थी कि एक लाइन पूरी होने से पहले गुज़र गई। इस गाने को पूरा सुनने के लिए मैंने लैपटॉप पर बजा दिया है। 


शोर के कारण मेरे फ्लैट और सड़क के बीच की दूरी मिट चुकी है। कई बार लगता है कि सड़क कमरे के बीच से गुज़र रही है। हर कमरे से एक बस गुज़र रही है। हम चलते फिरते ख़ुद को बस से बचा रहे हैं। कभी कोई बस कुर्सी के बगल से गुज़रती जाती है तो कभी बिस्तर के पास से। नींद उन बसों के आने-जाने के बीच ही ठहरती है। एक आती हुई बस जब चली जाती है और दूसरी आती हुई बस के करीब आने के बीच नींद आती है।जैसे ही नींद आती है, बस आ जाती है। 


हम इन आवाज़ों को अब ध्वनि प्रदूषण के नाम से जानते हैं। हैं भी। लेकिन इनमें संगीत है। हर हॉर्न कुछ अलग कहता है। कई बार लगता है कि किसी महान संगीतकार ने पियानो पर काफी ज़ोर से अपनी उंगलियों को रख दिया है। कभी लगता है कि की-बोर्ड को छू कर हटा लिया है। कभी-कभी तो लगता है कि संगीतकार मूड में है। एक बार ज़ोर से की-बोर्ड दबाता है फिर हल्के से और फिर जल्दी-जल्दी दो बार। कोई भी धुन पूरा सफ़र तय नहीं करती है। एक सफ़र में कई धुनें इसी तरह अधूरी रह जाती है। हर हॉर्न एक अधूरा संगीत है। 


प्रेशर हॉर्न की ध्वनि में एक खास किस्म का उल्लास नज़र आता है। उड़ कर पहुंच जाने का अहसास नहीं है। उस जगह के लिए चल देने की ख़ुशी है जहां के लिए बस निकली है। आ रही हूं या निकल गई टाइप की ख़ुशी। रास्ते में हूं। सुबह-सुबह निकली हूं। सुबह निकलने वाली बसें दोपहर या शाम होने से पहले पहुंचने का भरोसा लेकर निकलती हैं। किसी के घर की खिड़की से गुज़र रही हूं। वो हमें देख न ले इसलिए तेज़ी से निकल जाती हूं। वो देख ले इसलिए ज़ोर से हॉर्न बजा देती हूं। रवीश कुमार को नींद से जगाना अच्छा लगता है। नींद तो उसे आती भी नहीं। जागे हुए को छेड़ दो तो वह करवटें बदलने लगता है। खिड़की पर हम रोडवेज़ की बसों को देखने आ जाता है। लगता है बसें आपस में हॉर्न से एक दूसरे को उकसा रही होती हैं। तूने छेड़ा रवीश को। रूक मैं भी छेड़ती हूँ। हॉर्न बजाती हूँ।पता तो चले कि कोई जा चुकी है! लगे तो कोई आ रही है! जैसे मैं कह रहा हूँ, संभल जाओ नहीं तो फ़ेसबुक पर लिख कर दुनिया को बता दूँगा कि तुम लोग छेड़खानी करती हो।

#Copied_RavishKumar

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